किस कैद में जकड़ता जा रहा
हूँ
मैं खुद से ही बिछड़ता जा
रहा हूँ
जो ओझल हो गए आँखों से
उन ख्वाबों को पकड़ता जा
रहा हूँ
दुनिया के सामने फ़ैलने की चाह
में
कितना खुद में सिमटता जा रहा
हूँ
मुठ्ठी भर ख़ुशी पर हक क्या
जता दिया
दर्द से रिश्ता बनाता जा
रहा हूँ
एक दिन तो फूल मिलेंगे
राहों में
बस यूँ ही पत्थर हटाता जा
रहा हूँ
तुम्हारा ये कहना कि आओगे
लौटकर
साँसों से भी रिश्ता निभाता
जा रहा हूँ